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कुंभ या पब्लिसिटी स्टंट? ममता कुलकर्णी के मुद्दे पर चर्चा "Kumbh or Publicity Stunt? A Discussion on Mamata Kulkarni".
हिंदुस्तान के इतिहास में कुंभ मेला सिर्फ एक धार्मिक उत्सव ही नहीं, बल्कि संस्कृति और आस्था का प्रतीक भी है। हर साल करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु इस महा उत्सव का हिस्सा बनने के लिए इकट्ठा होते हैं। लेकिन जब ममता कुलकर्णी जैसे नाम इस धार्मिक महत्व के मुद्दे से जुड़ते हैं, तो सवाल उठता है कि यह सच में आस्था का प्रदर्शन है या एक पब्लिसिटी स्टंट?
90 के दशक की प्रसिद्ध बॉलीवुड अभिनेत्री ममता कुलकर्णी अपनी अलग पहचान के लिए मशहूर रही हैं। अपने समय की सबसे बोल्ड अभिनेत्रियों में से एक, ममता के करियर में कई ऊंचाइयां और गिरावटें रही हैं। लेकिन जब उनका नाम कुंभ के संदर्भ में आया, तो कई लोग हैरान रह गए।
कुंभ मेला, जिसमें साधु-संत और आस्था के अनुयायी प्रवेश करते हैं, वही जगह ममता कुलकर्णी के समर्थन या मुख्य ध्यान का केंद्र कैसे बनी? उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दशक में धार्मिकता और सन्यास को अपनाने का दावा किया है। लेकिन यह दावा कितना सच है, इस पर लोग विभाजित हैं।
ममता का अपना कहना है कि उन्होंने माया जाल छोड़कर धार्मिक जीवन को अपनाया है। लेकिन कई समीक्षक इस बात को सिर्फ पब्लिसिटी के एक पायदान के रूप में देखते हैं। बॉलीवुड का एक पुराना फार्मूला रहा है – धार्मिक या सामाजिक मुद्दों का उपयोग करके अपनी छवि सुधारना या मीडिया का ध्यान खींचना।
क्या ममता कुलकर्णी का यह कदम उनकी आस्था का प्रदर्शन है या सिर्फ मीडिया अटेंशन पाने का एक जरिया? आज के सोशल मीडिया के युग में किसी भी बड़े इवेंट का उपयोग अपने फायदे के लिए करना एक सामान्य प्रवृत्ति बन चुका है। कुंभ जैसा महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सव भी इससे अलग नहीं है।
धार्मिक चेतना और मानव आस्था को अगर इस प्रकार की चर्चित हस्तियां सिर्फ अपने एजेंडा के लिए प्रयोग करें, तो यह देश के सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व को बदनाम करने के बराबर हो सकता है।
कुंभ जैसा महान उत्सव हर भारतीय के लिए एक गौरवशाली धरोहर है। ऐसे में ममता कुलकर्णी जैसे व्यक्तियों का यहां प्रवेश, सवालों के घेरे में आ जाता है। क्या यह सच में धार्मिक मंथन है या एक पब्लिसिटी स्टंट?
आस्था एक व्यक्तिगत अनुभव है, जिसे न तो नापने का कोई स्केल है और न ही समझने का एक सीधा तरीका। लेकिन जब बात कुंभ के महान उत्सव की हो, तो हमें सभी को समझने की जरूरत है कि यह कोई मंच नहीं, बल्कि एक पवित्र यात्रा है। ममता कुलकर्णी के इस कदम पर आपका क्या विचार है? क्या यह उनकी धार्मिक चेतना का प्रतीक है या एक नए प्रकार की पब्लिसिटी? अपनी राय जरूर दें!
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